चीन ने पिछले चार दशकों में चुपके-चुपके दुर्लभ पृथ्वी धातुओं (Rare Earth Elements – REE) के वैश्विक परिदृश्य पर अपनी पकड़ मजबूत की है। आज, वह इन धातुओं की रिफाइनिंग में 90% से अधिक का नियंत्रण रखता है, जो इलेक्ट्रिक वाहन (EV), इलेक्ट्रॉनिक्स, रक्षा उपकरण और स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियों के लिए अनिवार्य हैं। भारत, जो इन धातुओं का 96% आयात चीन से करता है, अब इस आर्थिक युद्ध का मुख्य निशाना बन गया है। यह लेख इस बात की गहराई से पड़ताल करता है कि कैसे चीन अपनी इस एकाधिकार शक्ति का उपयोग भारत के खिलाफ हथियार के रूप में कर रहा है, और भारत कैसे इस संकट को अवसर में बदल सकता है।

चीन का दुर्लभ पृथ्वी धातु एकाधिकार: 40 साल की रणनीति
चीन ने 1980 के दशक से ही दुर्लभ पृथ्वी धातुओं के खनन, प्रसंस्करण और रिफाइनिंग में निवेश शुरू किया। सरकारी सब्सिडी, सस्ते श्रम, और पर्यावरण नियमों की ढील ने चीन को इस क्षेत्र में वैश्विक नेतृत्व प्रदान किया। आज, वह न केवल 70% खनन करता है, बल्कि 90% से अधिक रिफाइनिंग और 92% नियोडिमियम-आयरन-बोरोन (NdFeB) मैग्नेट का उत्पादन करता है, जो EVs, विंड टर्बाइन और रक्षा प्रणालियों में उपयोग होते हैं।
चीन ने इस एकाधिकार को हथियार के रूप में इस्तेमाल करना शुरू किया है। उदाहरण के लिए, 2010 में, जापान के साथ एक समुद्री विवाद के दौरान, चीन ने दो महीने के लिए जापान को REE निर्यात रोक दिया, जिससे वैश्विक कीमतें दस गुना बढ़ गईं। अप्रैल 2025 में, अमेरिका द्वारा लगाए गए 145% टैरिफ के जवाब में, चीन ने सात भारी दुर्लभ पृथ्वी धातुओं और मैग्नेट पर निर्यात प्रतिबंध लागू किए। इन प्रतिबंधों ने भारत जैसे देशों को गंभीर रूप से प्रभावित किया, जो अपनी आपूर्ति के लिए लगभग पूरी तरह से चीन पर निर्भर है।
नया दृष्टिकोण: चीन ने न केवल उत्पादन पर ध्यान दिया, बल्कि उसने अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में खनन परियोजनाओं में निवेश कर वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला को नियंत्रित किया। उसने डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो, बोलीविया और चिली जैसे देशों में बंदरगाहों, रेलवे और रिफाइनिंग सुविधाओं में भारी निवेश किया, जिससे उसकी वैश्विक पकड़ और मजबूत हुई। दूसरी ओर, भारत ने अभी तक ऐसी रणनीतिक वैश्विक साझेदारियां विकसित नहीं की हैं, जो इस क्षेत्र में उसकी स्थिति को मजबूत कर सकें।

दुर्लभ पृथ्वी धातुएं: भारत के लिए क्यों महत्वपूर्ण?
दुर्लभ पृथ्वी धातुएं 17 तत्वों का एक समूह हैं, जिनमें लैंथेनाइड्स, स्कैंडियम और येट्रियम शामिल हैं। ये धातुएं इलेक्ट्रिक वाहनों, स्मार्टफोनों, विंड टर्बाइनों, मिसाइल गाइडेंस सिस्टम (जैसे भारत के आकाश और अस्त्र मिसाइलें), और स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियों के लिए अपरिहार्य हैं। नियोडिमियम और प्रासियोडिमियम जैसे तत्व उच्च-प्रदर्शन मैग्नेट बनाते हैं, जो EVs और ड्रोन में उपयोग होते हैं। यूरोपियम और टर्बियम का उपयोग LED लाइटिंग में होता है, जबकि गैडोलीनियम रक्षा सेंसर और चिकित्सा उपकरणों में महत्वपूर्ण है।
भारत की महत्वाकांक्षी योजनाएं, जैसे 2030 तक 50% इलेक्ट्रिक वाहन बिक्री और 500 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन, इन धातुओं पर निर्भर हैं। रक्षा क्षेत्र में भी, F-35 जैसे आधुनिक लड़ाकू विमानों और स्मार्ट बमों में REE का उपयोग होता है। लेकिन भारत की 96% आपूर्ति चीन से आती है, जिससे वह भू-राजनीतिक जोखिमों के प्रति संवेदनशील हो जाता है।
नया दृष्टिकोण: भारत की डिजिटल इंडिया और मेक इन इंडिया पहल भी REE पर निर्भर हैं। स्मार्टफोन, लैपटॉप और 5G उपकरणों के लिए सेमीकंडक्टर चिप्स में लैंथेनम और सेरियम जैसे तत्वों की आवश्यकता होती है। यदि आपूर्ति बाधित होती है, तो भारत की डिजिटल अर्थव्यवस्था और स्टार्टअप इकोसिस्टम पर भी गंभीर प्रभाव पड़ सकता है।

चीन के निर्यात प्रतिबंध: भारत की कंपनियों पर असर
चीन के हालिया निर्यात प्रतिबंधों ने भारत की ऑटोमोटिव और नवीकरणीय ऊर्जा कंपनियों को गंभीर संकट में डाल दिया है। मारुति सुजुकी और बजाज ऑटो जैसी कंपनियां, जो EVs और हाइब्रिड वाहनों का उत्पादन बढ़ा रही हैं, अब आपूर्ति की कमी और लागत वृद्धि का सामना कर रही हैं। अप्रैल 2025 में लागू प्रतिबंधों के कारण, सात भारी REE (जैसे डिस्प्रोसियम, टर्बियम, और येट्रियम) की आपूर्ति रुक गई, जिससे मैग्नेट की कीमतें बढ़ गईं। इससे भारत के EV उद्योग को भारी नुकसान हुआ, क्योंकि इन मैग्नेट के बिना इलेक्ट्रिक मोटर का निर्माण असंभव है।
X पर पोस्ट्स के अनुसार, भारत की EV और रक्षा क्षेत्र की कंपनियां अब आपूर्ति श्रृंखला को सुरक्षित करने के लिए दबाव में हैं। उदाहरण के लिए, @soicfinance ने 4 जून 2025 को पोस्ट किया कि चीन के मैग्नेट निर्यात प्रतिबंध ने भारत के EV और नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र को प्रभावित किया है। इसी तरह, @kamaalrkhan ने 10 जून 2025 को चेतावनी दी कि चीन का अनौपचारिक निर्यात प्रतिबंध भारत के वाहन निर्माण को गंभीर रूप से प्रभावित करेगा।
नया दृष्टिकोण: इन प्रतिबंधों ने भारत के छोटे और मध्यम उद्यमों (SMEs) को भी प्रभावित किया है, जो स्मार्टफोन और सौर पैनल जैसे उत्पादों के लिए REE-आधारित घटकों पर निर्भर हैं। ये उद्यम, जो भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं, अब उच्च लागत और देरी का सामना कर रहे हैं, जिससे उनकी वैश्विक प्रतिस्पर्धात्मकता कम हो रही है।

भारत की निर्भरता: भंडार होने के बावजूद चुनौतियां
भारत के पास दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा REE भंडार (6.9 मिलियन टन) है, जो मुख्य रूप से आंध्र प्रदेश, ओडिशा, तमिलनाडु, केरल और पश्चिम बंगाल के तटीय रेत में मोनाजाइट के रूप में पाया जाता है। फिर भी, भारत वैश्विक REE उत्पादन में केवल 1% का योगदान देता है। इसका मुख्य कारण है:
- रिफाइनिंग तकनीक की कमी: भारत में उन्नत पृथक्करण और रिफाइनिंग तकनीक का अभाव है। IREL (India) Ltd. ही एकमात्र प्रमुख कंपनी है जो REE का खनन और ऑक्साइड रिफाइनिंग करती है, लेकिन यह वैश्विक मानकों की तुलना में अपर्याप्त है
- तकनीकी विशेषज्ञता की कमी: REE खनन और प्रसंस्करण में विशेष तकनीकी कौशल की आवश्यकता होती है, जिसमें भारत अभी पीछे है
- पर्यावरणीय और नियामक बाधाएं: मोनाजाइट में थोरियम जैसे रेडियोधर्मी तत्व होते हैं, जिसके कारण खनन और प्रसंस्करण में सख्त पर्यावरणीय नियम लागू होते हैं।
- अपर्याप्त बुनियादी ढांचा: भारत के खनन क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे की कमी, जैसे परिवहन और बिजली, उत्पादन को सीमित करती है
नया दृष्टिकोण: भारत में REE खनन के लिए निजी क्षेत्र की भागीदारी सीमित है, क्योंकि सरकारी नीतियां और लाइसेंसिंग प्रक्रिया जटिल हैं। इसके अलावा, भारत ने अभी तक थोरियम-आधारित परमाणु रिएक्टरों की संभावनाओं का पूरी तरह से दोहन नहीं किया है, जो मोनाजाइट भंडार से प्राप्त थोरियम का उपयोग कर सकते हैं। यह भविष्य में भारत को ऊर्जा आत्मनिर्भरता की ओर ले जा सकता है

भारत के सामने चुनौतियां
- तकनीकी अंतर: चीन, अमेरिका और जापान की तुलना में भारत की रिफाइनिंग तकनीक पुरानी है। उन्नत तकनीक के लिए विदेशी साझेदारियों की आवश्यकता है।
- निजी निवेश की कमी: भारत में REE क्षेत्र में निजी पूंजी का प्रवाह सीमित है, क्योंकि यह एक जोखिम भरा और लंबी अवधि का निवेश है
- पर्यावरणीय चिंताएं: REE खनन और प्रसंस्करण से रेडियोधर्मी कचरे का उत्पादन होता है, जिसके लिए सख्त पर्यावरणीय प्रबंधन की आवश्यकता है।
- वैश्विक प्रतिस्पर्धा: ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील और वियतनाम जैसे देश भी अपने REE क्षेत्र को विकसित कर रहे हैं, जिससे भारत को वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में जगह बनाने के लिए तेजी से कार्य करना होगा
नया दृष्टिकोण: भारत में REE रिसाइक्लिंग की क्षमता भी अपर्याप्त है। भारत प्रतिवर्ष 62 मिलियन टन ई-कचरे का उत्पादन करता है, लेकिन केवल 22% का ही रिसाइक्लिंग होता है। यदि भारत इस क्षेत्र में निवेश करे, तो वह घरेलू आपूर्ति को बढ़ा सकता है और आयात पर निर्भरता कम कर सकता है

आत्मनिर्भर भारत: रणनीतिक कदम
भारत को इस संकट को अवसर में बदलने के लिए तत्काल और दीर्घकालिक रणनीतियों की आवश्यकता है:
- राष्ट्रीय क्रिटिकल मिनरल मिशन को मजबूत करें: जुलाई 2025 में शुरू किया गया यह मिशन 2024-25 से 2030-31 तक 1,200 खोज परियोजनाओं को लागू करने की योजना बनाता है। इसे तेजी से लागू करने और निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाने की जरूरत है
- तकनीकी साझेदारियां: जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका जैसे देशों के साथ तकनीकी हस्तांतरण समझौते किए जाएं। जापान की JOGMEC एजेंसी, जिसने जापान की REE निर्भरता को 90% से घटाकर 58% किया, भारत के लिए एक मॉडल हो सकती है
- निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन: सरकार ने 3,500-5,000 करोड़ रुपये की योजना की घोषणा की है, जो रिवर्स बिडिंग के माध्यम से निजी कंपनियों को प्रोत्साहित करेगी। इसे और पारदर्शी और तेजी से लागू करना होगा
- ई-कचरा रिसाइक्लिंग: भारत को अपने 1,500 करोड़ रुपये के रिसाइक्लिंग प्रोत्साहन योजना को जल्द लागू करना चाहिए। यह न केवल आपूर्ति बढ़ाएगा, बल्कि पर्यावरणीय स्थिरता को भी बढ़ावा देगा
- वैश्विक साझेदारियां: भारत को ऑस्ट्रेलिया, अर्जेंटीना और अफ्रीकी देशों के साथ खनन और रिफाइनिंग साझेदारियां बढ़ानी चाहिए। उदाहरण के लिए, ऑस्ट्रेलिया का ब्राउन्स रेंज प्रोजेक्ट डिस्प्रोसियम का एक वैकल्पिक स्रोत हो सकता है
- थोरियम अनुसंधान: भारत को अपने थोरियम-आधारित परमाणु रिएक्टर अनुसंधान को तेज करना चाहिए, जो मोनाजाइट भंडार का उपयोग कर सकता है और ऊर्जा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता ला सकता है।
नया दृष्टिकोण: भारत को एक राष्ट्रीय REE नीति बनानी चाहिए, जो खनन, रिफाइनिंग, रिसाइक्लिंग और वैश्विक व्यापार को एकीकृत करे। साथ ही, स्टार्टअप्स और अनुसंधान संस्थानों को REE-आधारित नवाचारों के लिए प्रोत्साहित करने हेतु एक समर्पित फंड स्थापित किया जाए। यह भारत को न केवल आत्मनिर्भर बनाएगा, बल्कि वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में एक प्रमुख खिलाड़ी भी बनाएगा।
निष्कर्ष
चीन का दुर्लभ पृथ्वी धातुओं पर एकाधिकार भारत के लिए एक गंभीर चुनौती है, लेकिन यह आत्मनिर्भरता की दिशा में एक सुनहरा अवसर भी है। भारत के पास तीसरा सबसे बड़ा REE भंडार है, और यदि वह तकनीकी, नीतिगत और वैश्विक साझेदारियों के माध्यम से अपनी क्षमताओं को विकसित करता है, तो वह न केवल अपनी निर्भरता कम कर सकता है, बल्कि वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। समय की मांग है कि भारत तेजी से कार्य करे, निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करे, और इस संकट को अपनी आर्थिक और सामरिक ताकत में बदले।
आह्वान: यह केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं है। हमें, नागरिकों के रूप में, अपने उद्योगों और स्टार्टअप्स को समर्थन देना होगा, ताकि भारत इस आर्थिक युद्ध में विजयी हो और आत्मनिर्भर भारत का सपना साकार हो।