नक्सलवाद: भारत का सबसे लंबा आंतरिक संघर्ष – इतिहास, कारण और प्रभाव

नक्सलवाद: भारत का दीर्घकालिक आंतरिक संघर्ष

नक्सलवाद, भारत के इतिहास में एक ऐसा आंदोलन है, जो सामाजिक अन्याय, शोषण और भूमि विवादों जैसे जटिल मुद्दों से जन्मा। एक छोटे से गांव से शुरू हुआ यह आंदोलन धीरे-धीरे देश के कई हिस्सों में फैल गया और आज भी भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए एक बड़ी चुनौती बना हुआ है। इस लेख में हम नक्सलवाद के उद्भव, विकास, कारणों, प्रभावों और इससे निपटने के उपायों पर विस्तृत चर्चा करेंगे

नक्सलवाद: भारत का सबसे लंबा आंतरिक संघर्ष - इतिहास, कारण और प्रभाव

नक्सलवाद की उत्पत्ति: नक्सलबाड़ी विद्रोह
नक्सलवाद की शुरुआत 1967 में पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के नक्सलबाड़ी गांव से हुई। उस समय भारत में सामाजिक और आर्थिक असमानताएं अपने चरम पर थीं। जमींदारों और सामंतों द्वारा गरीब किसानों और आदिवासियों का शोषण आम था। इस अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने के लिए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के नेताओं चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने नक्सलबाड़ी में सशस्त्र विद्रोह का नेतृत्व किया।

इस विद्रोह का मुख्य लक्ष्य था भूमि सुधार और गरीब किसानों को उनका अधिकार दिलाना। नक्सलबाड़ी विद्रोह में स्थानीय किसानों और आदिवासियों ने जमींदारों के खिलाफ हथियार उठाए और उनकी जमीनों पर कब्जा किया। भले ही यह विद्रोह स्थानीय स्तर पर शुरू हुआ, लेकिन इसने पूरे देश में वैचारिक ज्वाला भड़काई। चारू मजूमदार ने “सशस्त्र क्रांति” का नारा दिया, जिसने नक्सलवाद को राष्ट्रीय स्तर पर एक आंदोलन का स्वरूप प्रदान किया।

नक्सलवाद की उत्पत्ति: नक्सलबाड़ी विद्रोह

नक्सलवाद का वैचारिक आधार
नक्सलवाद मार्क्सवाद-लेनिनवाद और माओवाद की विचारधारा पर आधारित है। चारू मजूमदार और उनके सहयोगियों ने माओ त्से-तुंग के सिद्धांतों को अपनाया, जो ग्रामीण क्षेत्रों में सशस्त्र क्रांति के माध्यम से सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन की वकालत करते थे। नक्सलवादियों का मानना था कि भारत का पूंजीवादी और सामंती ढांचा गरीबों और आदिवासियों का शोषण करता है, और इसे केवल सशस्त्र संघर्ष के जरिए ही बदला जा सकता है।

1969 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) यानी CPI (ML) का गठन हुआ, जिसने नक्सलवाद को संगठित रूप दिया। इस संगठन ने पश्चिम बंगाल के साथ-साथ बिहार, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा (अब ओडिशा) और अन्य राज्यों में भी अपनी जड़ें जमाईं।

नक्सलवाद का वैचारिक आधार

नक्सलवाद का प्रसार और प्रमुख नेता
नक्सलवाद धीरे-धीरे उन क्षेत्रों में फैल गया, जहां आदिवासी और गरीब समुदायों की आबादी अधिक थी। 1980 के दशक में कोन्डापल्ली सीतारमैया जैसे नेताओं ने आंध्र प्रदेश में नक्सल आंदोलन को मजबूती दी। उनके नेतृत्व में पीपुल्स वॉर ग्रुप (PWG) का गठन हुआ, जो बाद में एक शक्तिशाली नक्सल संगठन बन गया।

2004 में CPI (माओवादी) का गठन हुआ, जो विभिन्न नक्सल समूहों का एकीकरण था। इस संगठन का नेतृत्व गणपति और बासवराज जैसे नेताओं ने संभाला। CPI (माओवादी) ने सशस्त्र हमलों के साथ-साथ आदिवासी क्षेत्रों में समानांतर सरकारें स्थापित कीं, जिनमें स्कूल, स्वास्थ्य सेवाएं और न्याय व्यवस्था शामिल थीं।

नक्सलवाद का प्रभाव विशेष रूप से भारत के “रेड कॉरिडोर” में देखा जाता है, जिसमें झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों के जंगली और आदिवासी क्षेत्र शामिल हैं। इन क्षेत्रों में नक्सलवादियों ने गुरिल्ला युद्ध की रणनीति अपनाई।

नक्सलवाद का प्रसार और प्रमुख नेता

नक्सलवाद के कारण
नक्सलवाद के उदय और प्रसार के पीछे कई सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कारण हैं। इनमें से कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:

1. भूमि असमानता और शोषण: ग्रामीण भारत में भूमि का असमान वितरण और जमींदारों द्वारा किसानों का शोषण नक्सलवाद का मुख्य कारण रहा। गरीब किसानों और आदिवासियों को उनकी जमीन से वंचित किया गया, जिससे उनके बीच असंतोष बढ़ा।

2. आदिवासियों का हाशिए पर होना: आदिवासी समुदाय, जो जंगलों और प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर थे, खनन और औद्योगिक परियोजनाओं के कारण विस्थापित हुए। इन परियोजनाओं से उन्हें कोई लाभ नहीं मिला, बल्कि उनकी आजीविका छिन गई।

3. आर्थिक असमानता: अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई ने नक्सलवाद को बढ़ावा दिया। ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी बुनियादी सुविधाओं की कमी ने युवाओं को नक्सलवाद की ओर आकर्षित किया।

4. सरकारी उपेक्षा: कई आदिवासी और ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी उपस्थिति नगण्य थी। नक्सलवादियों ने इस शून्यता का लाभ उठाया और स्थानीय लोगों को अपने पक्ष में किया।

5. वैचारिक आकर्षण: माओवादी विचारधारा ने कई पढ़े-लिखे युवाओं को आकर्षित किया, जो व्यवस्था के खिलाफ बदलाव की मांग कर रहे थे।

नक्सलवाद के उदय और प्रसार के पीछे कई सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कारण हैं।

नक्सलवाद का प्रभाव
नक्सलवाद ने भारत के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ढांचे पर गहरा प्रभाव डाला है। इसके कुछ प्रमुख प्रभाव निम्नलिखित हैं:

1. हिंसा और अस्थिरता: नक्सलवादियों ने सुरक्षाबलों, पुलिस और सरकारी अधिकारियों पर कई हमले किए, जिससे हजारों लोगों की जान गई। सरकार की जवाबी कार्रवाई ने हिंसा को और बढ़ाया।

2. विकास में रुकावट: नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में विकास कार्यों को लागू करना चुनौतीपूर्ण रहा है। नक्सलवादी अक्सर स्कूलों, अस्पतालों और सड़कों जैसे बुनियादी ढांचे को निशाना बनाते हैं।

3. आदिवासियों की दुर्दशा: नक्सलवाद ने आदिवासियों को दोतरफा नुकसान पहुंचाया। एक ओर वे सरकारी नीतियों से प्रभावित हैं, तो दूसरी ओर नक्सलवादियों और सुरक्षाबलों के बीच फंसकर उनकी जिंदगी और कठिन हो गई है।

4. सामाजिक एकता पर प्रभाव: नक्सलवाद ने समुदायों के बीच अविश्वास को बढ़ाया और ग्रामीण-शहरी भारत के बीच की खाई को और गहरा किया।

नक्सलवाद ने भारत के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ढांचे पर गहरा प्रभाव डाला है।

सरकार की प्रतिक्रिया
भारत सरकार ने नक्सलवाद से निपटने के लिए दोहरी रणनीति अपनाई है: सशस्त्र कार्रवाई और विकास।

1. सुरक्षा अभियान: नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (CRPF) और अन्य अर्धसैनिक बलों को तैनात किया गया है। ऑपरेशन ग्रीन हंट और प्रहार जैसे अभियानों के जरिए नक्सलवादियों को कमजोर करने का प्रयास किया गया है।

2. विकास पहल: सरकार ने आदिवासी क्षेत्रों में विकास को बढ़ावा देने के लिए सड़क निर्माण, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं जैसी योजनाएं शुरू की हैं। “आस्पिरेशनल डिस्ट्रिक्ट्स प्रोग्राम” के तहत नक्सल प्रभावित जिलों पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है।

3. आत्मसमर्पण नीति: नक्सलवादियों को मुख्यधारा में लाने के लिए आत्मसमर्पण और पुनर्वास नीतियां लागू की गई हैं, जिनके तहत कई नक्सलियों ने हथियार डाले हैं।

भारत सरकार ने नक्सलवाद से निपटने के लिए दोहरी रणनीति अपनाई है: सशस्त्र कार्रवाई और विकास।

चुनौतियां और भविष्य
नक्सलवाद आज भी भारत के लिए एक जटिल समस्या है। हाल के वर्षों में सरकार की सख्त कार्रवाई और विकास योजनाओं के कारण इसका प्रभाव कुछ कम हुआ है, लेकिन यह पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। नक्सलवादियों के पास अभी भी हथियार और समर्थन है, और वे गुरिल्ला युद्ध में पारंगत हैं।

नक्सलवाद से निपटने के लिए सरकार को सशस्त्र कार्रवाई के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक सुधारों पर ध्यान देना होगा। आदिवासियों और गरीबों के लिए शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य सुविधाएं बढ़ाना जरूरी है। इसके अलावा, स्थानीय समुदायों का विश्वास जीतना भी महत्वपूर्ण है।

नक्सलवाद भारत का सबसे लंबा और जटिल आंतरिक संघर्ष है। यह केवल एक सुरक्षा चुनौती नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक असमानताओं का प्रतीक है। इसे पूरी तरह समाप्त करने के लिए सरकार, समाज और नागरिकों को एकजुट होकर काम करना होगा। यह एक ऐसी चुनौती है, जिसका समाधान हथियारों से नहीं, बल्कि लोगों के दिल और दिमाग जीतकर ही संभव है।

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